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अपनी भाषा को शक्तिशाली क्यों और कैसे बनाए ?

  अपनी भाषा को शक्तिशाली क्यों और कैसे बनाए ?

एक फर्नीचर स्टोर के मालिक मुझसे परिचित थे। खरीदारी के बाद बिलिंग के दौरान उन्होंने पूछा - कैसे है चंद्रा जी।

मैंने कहा - बस ठीक हूँ। उन्होंने पलटकर पूछा - ठीक क्यों है, अच्छे क्यों नहीं है ? मैं इस प्रश्न से अचरज में पड़ गया और अच्छा हूँ, कहकर निकलने की कोशिश की।

उन्होंने फिर पलटकर कहा - सिर्फ अच्छे क्यों हैं चंद्रा जी, आपको तो बहुत अच्छा होना चाहिए। मैंने जैसे तैसे कहा - बहुत अच्छा हूँ, भाई।

असहज होकर मैं वहाँ से निकल आया लेकिन घर पहुँचकर इस घटना पर विचार करता रहा। आखिर क्यों जीवन के बारे में इतना निराशाजनक जवाब दिया ? क्यों उत्साहित एवं प्रफुल्लित नहीं था ? क्या मैंने उस प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं समझा या वाकई मेरे मन में उत्साह की कमी थी? किन परिस्थिति में हमारे मुँह से ऐसी भाषा निकलती है ? मैंने कुछ अन्य लोगों से भी पूछा - आप कैसे है ? पूछने पर अलग- अलग जवाब मिले। जैसे -

एक ने कहा - बस कट रही है।

दूसरे ने कहा - जी रहे हैं।

तीसरे ने कहा - ठीक हूँ।

इसका सारांश कहूँ तो कुछ उत्तर ऐसे थे मानो उन लोगो ने जिंदगी को जीना अभी शुरू ही नहीं किया हो। कुछ उत्तर ऐसे थे मानो जबरदस्ती जिंदगी जी रहे है। दो लोग तो ऐसे उदास , निराश और हताश थे मानो वो मुर्दा ही पैदा हुए थे। आँकड़ो में कहूँ तो बीस में से सिर्फ चार लोग ऐसे थे जिन्होंने ऊर्जा से भरे जिंदादिल जवाब दिये। फर्स्ट क्लास चल रही है, फैंटास्टिक और शानदार , ये जवाब जिंदा लोगों के थे।

आप अपनी आदत पर गौर कीजिए। जब कोई आपसे हालचाल पूछे तो दुनिया के सबसे खुश और जिंदादिल आदमी की तरह जवाब दीजिए।

इसके लिये हम क्या करें -

* अपनी भाषा का नियमित निरिक्षण कीजिए।

* उदासी, हताशा, शंका, हीनता भरे शब्दों को हटाकर जोश, जीत, ख़ुशी और विश्वास भरे शब्दों का प्रयोग कीजिए।

* मुँह खोले, तो अच्छा बोले का सिद्धांत अमल में लाइए।

* आपसे मिलकर दूसरों की जिंदगी में भी जोश पैदा हो जाए, आज से ऐसे भाषा का प्रयोग कीजिए।


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